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ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी

ज़मीन अपने ही मेहवर से हट रही होगी

वो दिन भी दूर नहीं ज़ीस्त छट रही होगी

बढ़ा रहा है ये एहसास मेरी धड़कन को

घड़ी में सूई की रफ़्तार घट रही होगी

मैं जान लूँगा कि अब साँस घुटने वाला है

हरे दरख़्त से जब शाख़ कट रही होगी

नए सफ़र पे रवाना किया गया है तुम्हें

तुम्हारे पाँव से धरती लिपट रही होगी

ग़लत कहा था किसी ने ये गाँव वालों से

चलो कि शहर में ख़ैरात बट रही होगी

फ़लक की सम्त उछाली थी जल-परी मैं ने

सितारे हाथ में ले कर पलट रही होगी

बदन में फैल रही है ये काएनात 'आज़र'

हमारी आँख की पुतली सिमट रही होगी

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