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यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं

यूँ दीदा-ए-ख़ूँ-बार के मंज़र से उठा मैं

तूफ़ान उठा मुझ में समुंदर से उठा मैं

उठने के लिए क़स्द किया मैं ने बला का

अब लोग ये कहते हैं मुक़द्दर से उठा मैं

पहले तो ख़द-ओ-ख़ाल बनाए सर-ए-क़िर्तास

फिर अपने ख़द-ओ-ख़ाल के अंदर से उठा मैं

इक और तरह मुझ पे खुली चश्म-ए-तमाशा

इक और तजल्ली के बराबर से उठा मैं

है तेरी मिरी ज़ात की यकताई बराबर

ग़ाएब से तो उभरा तो मयस्सर से उठा मैं

क्या जाने कहाँ जाने की जल्दी थी दम-ए-फ़ज्र

सूरज से ज़रा पहले ही बिस्तर से उठा मैं

पथराने लगे थे मिरे आ'साब कोई दम

ख़ामोश निगाहों के बराबर से उठा मैं

इक आग मिरे जिस्म में महफ़ूज़ थी 'आज़र'

ख़स-खाना-ए-ज़ुलमात के अंदर से उठा मैं

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