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वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था

वो बहते दरिया की बे-करानी से डर रहा था

शदीद प्यासा था और पानी से डर रहा था

नज़र नज़र की यक़ीं-पसंदी पे ख़ुश थी लेकिन

बदन बदन की गुमाँ-रिसानी से डर रहा था

सभी को नींद आ चुकी थी यूँ तो परी से मिल कर

मगर वो इक तिफ़्ल जो कहानी से डर रहा था

लरज़ते होंटों से गिर पड़े थे हुरूफ़ इक दिन

दिल अपने जज़्बों की तर्जुमानी से डर रहा था

लुग़ात-ए-जाँ से कशीद करते हुए सुख़न को

मैं एक हर्फ़-ए-ग़लत मआ'नी से डर रहा था

जमा हुआ ख़ून है रगों में न जाने कब से

रुका हुआ ख़्वाब है रवानी से डर रहा था

वो बे-निशाँ है जिसे निशाँ की हवस थी 'आज़र'

वो राएगाँ है जो राएगानी से डर रहा था

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