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मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे

मुमकिन है कि मिलते कोई दम दोनों किनारे

इक मौज के मुहताज थे हम दोनों किनारे

यूँ आँख झपकता नहीं बहता हुआ पानी

मंज़र में न हो जाएँ बहम दोनों किनारे

आबाद हमेशा ही रहेगा ये समुंदर

रखते हैं मछेरों का भरम दोनों किनारे

ता-उम्र किसी मौजा-ए-ख़ुश-रौ की हवस में

बेदार रहे दम हमा-दम दोनों किनारे

खुलती है यहाँ आ के मिरे ख़्वाब की वुसअ'त

होते हैं मिरी आँख में ज़म दोनों किनारे

ये फ़ासला मिट्टी से कभी तय नहीं होगा

दरिया की हैं वुसअ'त पे क़सम दोनों किनारे

सब सैर को निकलेंगे सर-ए-साहिल-ए-हर-ख़्वाब

सय्याहों के चूमेंगे क़दम दोनों किनारे

कश्ती की तरह उम्र ख़िज़र-गीर है 'आज़र'

हस्ती के हैं मौजूद-ओ-अदम दोनों किनारे

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