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मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे

मंज़र से उधर ख़्वाब की पस्पाई से आगे

मैं देख रहा हूँ हद-ए-बीनाई से आगे

ये 'क़ैस' की मसनद है सो ज़ेबा है उसी को

है इश्क़ सरासर मिरी दानाई से आगे

शायद मिरे अज्दाद को मालूम नहीं था

इक बाग़ है इस दश्त की रानाई से आगे

सब देख रही थी पस-ए-दीवार था जो कुछ

थी चश्म-ए-तमाशाई तमाशाई से आगे

हम क़ाफ़िया-पैमाई के चक्कर में पड़े हैं

है सिन्फ़-ए-ग़ज़ल क़ाफ़िया-पैमाई से आगे

इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया

बरपा था तमाशा कोई तन्हाई से आगे

मुझ काग़ज़ी कश्ती पे नज़र कीजिए 'आज़र'

बढ़ती है जो लहरों की तवानाई से आगे

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