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मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे

मख़्फ़ी हैं अभी दिरहम-ओ-दीनार हमारे

मिट्टी से निकल आएँगे अश्जार हमारे

अल्फ़ाज़ से खींची गई तस्वीर-ए-दो-आलम

आवाज़ में रक्खे गए आसार हमारे

ज़ंगार किया जाता है आईना-ए-तख़लीक़

और नक़्श चले जाते हैं बेकार हमारे

कुछ ज़ख़्म दिखा सकता है ये रौज़न-ए-दीवार

कुछ भेद बता सकती है दीवार हमारे

क्यूँ चार अनासिर रहें पाबंद-ए-शब-ओ-रोज़

आज़ाद किए जाएँ गिरफ़्तार हमारे

क्यूँ शाम से वीरान किया जाता है हम को

क्यूँ बंद किए जाते हैं बाज़ार हमारे

क्या आप से अब सख़्ती-ए-बे-जा की शिकायत

जब आप हुए मालिक-ओ-मुख़्तार हमारे

तहसीन-तलब रहते हैं ता-उम्र कि 'आज़र'

पैदा ही नहीं होते तरफ़-दार हमारे

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