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मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था

मैं सुर्ख़ फूल को छू कर पलटने वाला था

वो जज़्ब था कि मिरा जिस्म कटने वाला था

उस एक रंग से पैदा हुई ये क़ौस-ए-क़ुज़ह

वो एक रंग जो मंज़र से हटने वाला था

मिरे क़रीब ही इक ताक़ में किताबें थीं

मगर ये ध्यान कहीं और बटने वाला था

अजीब शान से उतरी थी धूप ख़्वाहिश की

मैं अपने साए से जैसे लिपटने वाला था

तवील गुफ़्तुगू होती रही सितारों से

निगार-ख़ाना-ए-हस्ती उलटने वाला था

ज़मीं पे आमद-ए-आदम का शोर बरपा हुआ

वगरना रिज़्क़ फ़रिश्तों में बटने वाला था

ख़ुदा का शुक्र है नश्शा उतर गया मेरा

कि मैं सुबू में समुंदर उलटने वाला था

लपक रही थी कोई आग इस तरफ़ 'आज़र'

मैं उस से दूर बहुत दूर हटने वाला था

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