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कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं - दिलावर अली आज़र कविता - Darsaal

कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं

कब तक फिरूंगा हाथ में कासा उठा के मैं

जी चाहता है भाग लूँ दुनिया उठा के मैं

होती है नींद में कहीं तश्कील-ए-ख़द्द-ओ-ख़ाल

उठता हूँ अपने ख़्वाब का चेहरा उठा के मैं

बा'द अज़ सदा-ए-कुन हुई तक़्सीम-ए-हस्त-ओ-बूद

फिरता था काएनात अकेला उठा के मैं

क्यूँकर न सहल हो मुझे राह-ए-दयार-ए-इश्क़

लाया हूँ दश्त-ए-नज्द का नक़्शा उठा के मैं

बढ़ने लगा था नश्शा-ए-तख़्लीक़-ए-आब ओ ख़ाक

वो चाक उठा के चल दिया कूज़ा उठा के मैं

है साअत-ए-विसाल के मलने पे मुनहसिर

कस सम्त भागता हूँ ये लम्हा उठा के मैं

क़ुर्बत-पसंद दिल की तबीअत में था तज़ाद

ख़ुश हो रहा हूँ हिज्र का सदमा उठा मैं

अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक

उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं

अच्छा भला तो था तन-ए-तन्हा जहान में

पछता रहा हूँ ख़ल्क़ का बेड़ा उठा के मैं

'आज़र' मुझे मदीने से हिजरत का हुक्म था

सहरा में ले के आ गया ख़ेमा उठा के मैं

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