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फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा - दिल अय्यूबी कविता - Darsaal

फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा

फिर मरहला-ए-ख़्वाब-ए-बहाराँ से गुज़र जा

मौसम है सुहाना तो गरेबाँ से गुज़र जा

शीशे के मकाँ और नज़र के मुतहम्मिल

दीवाना न बन शहर-ए-निगाराँ से गुज़र जा

सब क़त्ल के अस्बाब बहम हैं सर-ए-मक़्तल

ऐसे में पस-ओ-पेश न कर जाँ से गुज़र जा

फिर देंगे वही मशवरा-ए-तर्क-ए-मोहब्बत

अहबाब-नुमा हल्क़ा-ए-याराँ से गुज़र जा

कुछ दूर नहीं मंजिल-ए-मक़्सूद-ए-तमन्ना

इक फासला-ए-क़ुर्ब-ए-रग-ए-जाँ से गुज़र जा

ऐ 'दिल' इन्हें इदराक कहाँ नम्रतियों का

जो कहते हैं पल भर में बयाबाँ से गुज़र जा

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