हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ
हसीं है शहर तो उजलत में क्यूँ गुज़र जाएँ
जुनून-ए-शौक़ उसे भी निहाल कर जाएँ
ये और बात कि हम को नज़र नहीं आए
मगर वो साथ ही रहता है हम जिधर जाएँ
हयात-ए-इश्क़ का मक़्सूद बन गई आख़िर
ये आरज़ू कि तिरा नाम ले के मर जाएँ
ये राह-ए-इश्क़ है आख़िर कोई मज़ाक़ नहीं
सऊबतों से जो घबरा गए हों घर जाएँ
पहुँच के मंज़िल-ए-मक़्सूद पर ही दम लेंगे
कि चल पड़े हैं तो किस मुँह से लौट कर जाएँ
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