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नज़र आया न कोई भी इधर देखा उधर देखा - दीपक क़मर कविता - Darsaal

नज़र आया न कोई भी इधर देखा उधर देखा

नज़र आया न कोई भी इधर देखा उधर देखा

वहाँ पहुँचे तो अपने आप को भी बे-नज़र देखा

ये धोका था नज़र का या फ़रिश्ता सब्ज़ चादर में

कहीं सहरा में लहराता हुआ उस ने शजर देखा

कहीं पे जिस्म और पहचान दोनों राह में छोड़े

ख़ुद अपने आप को हम ने न अपना हम-सफ़र देखा

बने क्या आशियाँ ताज़ा हवा न पेड़ के झुरमुट

किसी उड़ते परिंदे ने नए युग का नगर देखा

लगे थे आइने चारों तरफ़ शायद मोहब्बत के

नज़र के सामने था बस वही हम ने जिधर देखा

ज़मीं की सेज पर साए की चादर ओढ़ कर सोया

किसी बंजारे सैलानी ने रस्ते में ही घर देखा

कभी हम डूब जाएँगे इसी में सोचते हर दम

हमारे दिल ने जब देखा हबाबों का भँवर देखा

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