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'मजाज़' की मौत पर - द्वारका दास शोला कविता - Darsaal

'मजाज़' की मौत पर

ऐ बे-नियाज़-ए-शौक़-ए-फ़रावाँ कहाँ है तू

ऐ निगहत-ए-शमीम-ए-बहाराँ कहाँ है तू

ऐ बाइ'स-ए-फ़रोग़-ए-गुलिस्ताँ कहाँ है तू

ऐ रौनक़-ए-वजूद-ए-ख़याबाँ कहाँ है तू

पथरा गई हैं आँखें तिरे इंतिज़ार में

कुछ तो बता कि ऐ मह-ए-ताबाँ कहाँ है तू

वो तेरे शौक़-ए-नग़्मा-सराई को क्या हुआ

ऐ यार नग़्मा-रेज़-ओ-ग़ज़ल-ख़्वाँ कहाँ है तू

तेरे बग़ैर कुछ नहीं लुत्फ़-ए-शराब-ओ-शे'र

ऐ निगहत-ए-लतीफ़-ए-ख़याबाँ कहाँ है तू

हाँ तेरे दम से रौनक़-ए-बज़्म-ए-वजूद थी

ऐ रौशनी-ए-शम-ए-फ़रोज़ाँ कहाँ है तू

तेरे बग़ैर ख़ाक-बसर फिर रहा हूँ मैं

मेरे बग़ैर सर-ब-गरेबाँ कहाँ है तू

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