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मिरी बे-क़रारी मिरी आह-ओ-ज़ारी ये वहशत नहीं है तो फिर और क्या है - द्वारका दास शोला कविता - Darsaal

मिरी बे-क़रारी मिरी आह-ओ-ज़ारी ये वहशत नहीं है तो फिर और क्या है

मिरी बे-क़रारी मिरी आह-ओ-ज़ारी ये वहशत नहीं है तो फिर और क्या है

परेशाँ तो रहना मगर कुछ न कहना मोहब्बत नहीं है तो फिर और क्या है

ग़म-ए-ज़िंदगी नाला-ए-सुब्ह-गाही मिरे शैख़ साहब की वाही तबाही

अगर उन के होते वजूद-ए-इलाही हक़ीक़त नहीं है तो फिर और क्या है

तिरी ख़ुद-पसंदी मिरी वज़्अ'-दारी तिरी बे-नियाज़ी मिरी दोस्त-दारी

जुनून-ए-मुरव्वत ब-हर-रंग तारी मुसीबत नहीं है तो फिर और क्या है

ग़रीबों को बद-हाल-ओ-मजबूर रखना उन्हें फ़िक्रमंद और रंजूर रखना

उन्हें अपना कहना मगर दूर रखना ये हिकमत नहीं है तो फिर और क्या है

तिरी राह में हर क़दम जान देना मुसीबत भी आए तो सर अपने लेना

मोहब्बत की कश्ती ब-हर-हाल खेना रिफ़ाक़त नहीं है तो फिर और क्या है

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