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एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं - द्वारका दास शोला कविता - Darsaal

एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं

एक रहज़न को अमीर-ए-कारवाँ समझा था मैं

अपनी बद-बख़्ती को मंज़िल का निशाँ समझा था मैं

तेरी मा'सूमी के सदक़े मेरी महरूमी की ख़ैर

ऐ कि तुझ को सूरत-ए-आराम-ए-जाँ समझा था मैं

दुश्मन-ए-दिल दुश्मन-ए-दीं दुश्मन-ए-होश-ओ-हवास

हाए किस ना-मेहरबाँ को मेहरबाँ समझा था मैं

दोस्त का दर आ गया तो ख़ुद-बख़ुद झुकने लगी

जिस जबीं को बे-नियाज़-ए-आस्ताँ समझा था मैं

क़ाफ़िले का क़ाफ़िला ही राह में गुम कर दिया

तुझ को तो ज़ालिम दलील-ए-रह-रवाँ समझा था मैं

मेरे दिल में आ के बैठे और यहीं के हो गए

आप को तो यूसुफ़-ए-बे-कारवाँ समझा था मैं

इक दरोग़-ए-मस्लहत-आमेज़ था तेरा सुलूक

ये हक़ीक़त थी मगर ये भी कहाँ समझा था मैं

ज़िंदगी इनआ'म-ए-क़ुदरत ही सही लेकिन इसे

क्या ग़लत समझा अगर यार-ए-गराँ समझा था मैं

फेर था क़िस्मत का वो चक्कर था मेरे पाँव का

जिस को 'शो'ला' गर्दिश-ए-हफ़्त-आसमाँ समझा था मैं

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