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देख जुर्म-ओ-सज़ा की बात न कर - द्वारका दास शोला कविता - Darsaal

देख जुर्म-ओ-सज़ा की बात न कर

देख जुर्म-ओ-सज़ा की बात न कर

मय-कदे में ख़ुदा की बात न कर

मैं तो बे-मेहरियों का आदी हूँ

मुझ से मेहर-ओ-वफ़ा की बात न कर

शौक़-ए-बे-मुद्दआ' का मारा हूँ

शौक़-ए-बे-मुद्दआ' की बात न कर

वो तो मुद्दत हुई कि टूट गया

मेरे दस्त-ए-दुआ की बात न कर

जो नहीं इख़्तियार में मेरे

उस बुत बे-वफ़ा की बात न कर

इश्क़ की इंतिहा को देख ज़रा

इश्क़ की इब्तिदा की बात न कर

क्या मिला फ़िक्र की रसाई से

मेरी फ़िक्र-ए-रसा की बात न कर

इस की तक़दीर में ख़राबी थी

इस दिल-ए-मुब्तला की बात न कर

जो भी होना था हो गया 'शो'ला'

करम-ए-नाख़ुदा की बात न कर

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