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कल से आज तक - दौर आफ़रीदी कविता - Darsaal

कल से आज तक

मगर वो सब कुछ भुला चुकी है

कि जिस के हमराह बीता बचपन

कि जिस के हमराह थी जवानी

उमंगें परवान चढ़ रही थीं

वो बे-ख़बर रोज़-ओ-शब की यादें

कभी कभी छोटी मोटी बातों पे रूठ जाना

न बात करना न साथ रहना

जो मैं मनाऊँ तो वो न माने

वो प्यार क्या था ख़ुदा ही जाने

मगर वो सब कुछ भुला चुकी है

कि जिस के हमराह बीता बचपन

कि जिस के हमराह थी जवानी

जो होश आया

तो उस ने इक साथ मरने-जीने की खाईं क़स्में

मगर वो सब कुछ भुला चुकी है

कि जिस की ज़ुल्फ़ों में ज़िंदगी की तमाम क़द्रें उलझ गई थीं

कि जिस के माथे की सुर्ख़ बिंदी मिरा नसीबा जगा रही थी

कि जिस की नज़रों से मैं ने यकसानियत की मय पी

कि जिस के नाज़ुक लबों पे मेरे लिए तबस्सुम की रौशनी थी

कि जिस की साँसों में मेरे संगीत की सदा थी

कि जिस के सीने की धड़कनों में मिरे लिए एक ज़लज़ला था

कि जिस की गुफ़तार-ए-नर्म-ओ-नाज़ुक ने ज़हर-ए-शीरीं पिलाए मुझ को

कि जिस के ज़ानू पे मेरा सर था

मगर वो सब कुछ भुला चुकी है

कि जिस के हमराह बीता बचपन

कि जिस के हमराह थी जवानी

कि जिस ने इक राह पर ही ग्यारह बरस गुज़ारे थे साथ मेरे

वो राह जिस पर मोहब्बतें थीं मसर्रतें थीं

मुसीबतें थीं

मगर वो ज़ालिम

कि जिस ने अपनी ख़ुशी के आगे

न ख़ुद को समझा न मुझ को जाना

तिलिस्म-ए-हुस्न-ओ-यक़ीन टूटा

तो वो नहीं थी

जो हम-सफ़र थी

मैं अपनी मंज़िल में अपने रस्ते पे अब अकेला ही जा रहा हूँ

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