मज़दूर
शाहिद-ए-दहर की तस्वीर बनाने वाले
अपनी तस्वीर की जानिब भी ज़रा एक नज़र
ऐ हर इक ज़र्रे की तक़दीर बनाने वाले
अपनी तक़दीर के ख़ाकों को फ़रामोश न कर
तेरी तक़दीर है आईना-ए-तक़दीर जहाँ
ख़ूब मा'लूम है तेरा ग़म-ए-तन्हा मुझ को
तुझ में उठने के निशाँ तुझ में सँभलने के निशाँ
तेरी सूरत में नज़र आता है फ़र्दा मुझ को
मुंतशिर हो के ज़माने में हुआ ख़ार-अो-ज़बूँ
हो मुनज़्ज़म तो क़वी तुझ सा ज़माने में नहीं
अन-गिनत हाथ तिरे जब भी उठे हैं मिल कर
तेरे क़दमों पे झुकी आ के चटानों की जबीं
ख़ालिक़-ए-नान-ए-जवीं तू है ज़ियाँ तेरी है
फ़िक्र की बात नहीं सारा जहाँ तेरा है
क़ुव्वतें तुझ में जो हैं उन की ख़बर तुझ को नहीं
जो अयाँ है वो तिरा है जो है निहाँ तेरा है
ग़म को सीने में दबा रक्खा है तू ने लेकिन
ग़म बड़ी चीज़ है तो उस से कोई काम तो ले
तिश्नगी बढ़ के कहीं तेरा गला घोंट न दे
मय भी मिल जाएगी साक़ी से मगर जाम तो ले
(957) Peoples Rate This