जवाज़

ज़िंदगी कितनी है अजीब-ओ-ग़रीब

ज़िंदगी क्या है इक तमाशा है

ज़िंदगी रहगुज़ार-ए-बे-मंज़िल

बे-तलब बे-हुसूल जीना है

हैं फ़क़त चंद लोग ही मुख़्तार

और बाक़ी जो हैं वो बंदे हैं

क्या फिरे हैं गले में लटकाए

रंज-ओ-मज़लूमियत के फंदे हैं

फिर भी जीते हैं क्या ख़बर क्या हो

कुछ दवामी नहीं निज़ाम-ए-कोहन

गरचे है ये मक़ाम-ए-दर्द-ओ-मेहन

क्या ख़बर मंज़िल-ए-दिगर क्या हो

आज हर चंद हैं बह-हाल-ए-ज़बूँ

कौन जाने कि कल मगर क्या हो

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