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मुझ साथ सैर-ए-बाग़ कूँ ऐ नौ-बहार चल - दाऊद औरंगाबादी कविता - Darsaal

मुझ साथ सैर-ए-बाग़ कूँ ऐ नौ-बहार चल

मुझ साथ सैर-ए-बाग़ कूँ ऐ नौ-बहार चल

बुलबुल है इंतिज़ार में ऐ गुल-इज़ार चल

करने कूँ क़त्ल आशिक़-ए-जाँ-बाज़ के सनम

ले तेग़-ए-नाज़ हाथ कमर रख कटार चल

करने नज़ारा बाग़ का निकला है गुल-बदन

बरजा है हर चमन सूँ गर आवे बहार चल

उस गुल-बदन सूँ ज़ौक़ हम-आग़ोश है अगर

हो चाक सीना गुल के नमन बन के हार चल

उस शम्अ-रू के वस्ल का गर तुझ कूँ शौक़ है

महफ़िल में आशिक़ाँ की हो परवाना-वार चल

आख़िर असीर-ए-उम्र का है इस जहाँ सूँ कूच

इस वास्ते है दम की जरस में पुकार चल

गर अज़्म है बुज़ुर्गी इस आलम में हुए हुसूल

आमाल-नामा जग में अपस का सँवार चल

गर यार के है वस्ल की नेमत की इश्तिहा

हर शय सूँ रह ऊ पास वहाँ लग नहार चल

अव्वल ख़ुदी के घर कूँ ऐ 'दाऊद' तोड़ सट

मय-ख़ाना-ए-विसाल में तब सिध-बिसार चल

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