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गुलशन-ए-जग में ज़रा रंग-ए-मोहब्बत नीं है - दाऊद औरंगाबादी कविता - Darsaal

गुलशन-ए-जग में ज़रा रंग-ए-मोहब्बत नीं है

गुलशन-ए-जग में ज़रा रंग-ए-मोहब्बत नीं है

बुलबुल-ए-दिल कूँ किसी साथ अब उल्फ़त नीं है

आश्नाई सेती मर्दुम के हूँ अज़ बस बेज़ार

रुख़-ए-दर्पन की तरफ़ चश्म कूँ रग़बत नीं है

क्या अजब है जो दिया जान को यकबार पतंग

ता-सहर शम्अ कूँ जलने सेती फ़ुर्सत नीं है

क्यूँ गरेबाँ कूँ किया चाक ज़ि-सर-ता-दामाँ

गुल कूँ बुलबुल सूँ अगर तर्ज़-ए-मुरव्वत नीं है

मुझ कूँ बावर नहीं पैग़ाम-ए-ज़बानी क़ासिद

क्या सबब है कि तिरे हाथ किताबत नीं है

मुंतख़ब कर के वरक़ दिल पे लिखे हैं अहबाब

गरचे ज़ाहिर में मिरे शेर की शोहरत नीं है

ना-तवानी सती बरजा है अलामत न करो

रंग-ए-'दाऊद' कूँ पर्वाज़ की ताक़त नीं है

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