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दर्पन दिया हूँ दिल का मैं उस दिलरुबा के हाथ - दाऊद औरंगाबादी कविता - Darsaal

दर्पन दिया हूँ दिल का मैं उस दिलरुबा के हाथ

दर्पन दिया हूँ दिल का मैं उस दिलरुबा के हाथ

दर्पन में वो पिया है वो दर्पन पिया के हाथ

उस क़िबला-रू की देख के मेहराब-ए-अब्र वाँ

सफ़ बाँध खुल रहे हैं मिज़ा जियूँ दुआ के हाथ

हर वक़्त बे-हिजाब हो क्यूँकर करे निगाह

है इख़्तियार चश्म-ए-पिया का हया के हाथ

किस रंग सूँ लगे है कफ़-ए-पा कूँ शोख़ की

दिल ख़ून हो रहा है हमारा हिना के हाथ

गुलगूँ क़बा न मार तग़ाफ़ुल की तेग़ सूँ

है क़त्ल आशिक़ाँ का तिरी यक अदा के हाथ

बरजा है बर्ग-ए-गुल सूँ कफ़न उस कूँ हुए नसीब

जो कुइ हुआ शहीद वो गुल-गूँ क़बा के हाथ

है चाक चाक ग़ुंचा-ए-दिल आज आह सूँ

ज्यूँ चाक-ए-पैरहन कूँ किया गुल सबा के हाथ

कहते हैं आशिक़ाँ यू मिरा हाल देख कर

शायद तूँ दिल दिया है किसी बेवफ़ा के हाथ

दरकार नीं है मुझ कूँ कबूतर की क़ासिदी

भेजा हूँ गुल-बदन कूँ मैं नामा सबा के हाथ

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