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ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे

ज़िंदगी का किस लिए मातम रहे

मुल्क बसता है मिटे या हम रहे

दिल रहे पीरी में भी तेरा जवाँ

आख़िरी दम तक यही दम-ख़म रहे

चाहिए इंसान का दिल हो ग़नी

पास माल ओ ज़र बहुत या कम रहे

क्या इसी जन्नत की ये तहरीस है

जिस में कुछ दिन हज़रत-ए-आदम रहे

वस्ल से मतलब न रख तू इश्क़ का

दम भरे जा दम में जब तक दम रहे

लाग इक दिन बन के रहती है लगाव

हाँ लगावट कुछ न कुछ बाहम रहे

इश्क़ ने जिस दिल पे क़ब्ज़ा कर लिया

फिर कहाँ उस में नशात ओ ग़म रहे

शर्क़ से जब नूर चमका तो कहाँ

बर्ग-ए-गुल पर क़तरा-ए-शबनम रहे

हुस्न की दुनिया का है दाएम शबाब

हश्र तक उस का यही आलम रहे

है सुरूर-ए-हुस्न 'कैफ़ी' ला-यज़ाल

दर-ख़ुर-ए-ज़र्फ़ उस में बेश ओ कम रहे

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