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सूरत-ए-हाल अब तो वो नक़्श-ए-ख़याली हो गया - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

सूरत-ए-हाल अब तो वो नक़्श-ए-ख़याली हो गया

सूरत-ए-हाल अब तो वो नक़्श-ए-ख़याली हो गया

जो मक़ाम मा-सिवा था दिल में ख़ाली हो गया

मुमतन'अ जो था वो है ज़ेब-ए-बदाहत क़ल्ब को

जो यक़ीनी अम्र था वो एहतिमाली हो गया

छोड़ी ख़ुद-बीनी तो अब हर शय में हुस्न आया नज़र

दीदा-ए-हक़-बीं जलाली से जमाली हो गया

ज़ौक़-ए-नज़्ज़ारा ये है आँखों पर अब रखता हूँ मैं

ज़र्रे ज़र्रे को जो नज़्र-ए-पाएमाली हो गया

ज़ोम और पिंदार का हक़-उल-यक़ीं से है बदल

वो घरोंदा अब तो फ़ानूस-ए-ख़याली हो गया

आँख उठ कर हुस्न-ए-क़ुदरत से जो अपने पर गई

सब ख़ुदी का रंग रंग-ए-इंफ़िआली हो गया

पहले इस में सर था ऐ समसाम इश्क़ और जान थी

क्यूँकि मिलता तुझ से आ अब हाथ ख़ाली हो गया

ग़ैरत-ए-दिल-दादा-ओ-दिल-दार की जाती रही

अब तो जो होना था ऐ आक़ा-ए-आली हो गया

वजह-ए-इल्म-ए-ज़ात हो क्यूँकर न इरफ़ान-ए-सिफ़त

क्या अर्ज़ की शान जब जौहर से ख़ाली हो गया

जो रहा ख़ुद्दार होने पर ख़ुदी से दूर दूर

वो दयार-ए-इश्क़ ओ दिल-सोज़ी का वाली हो गया

है ख़ता उस को अगर आशिक़ कहो तुम जिस का इश्क़

ख़त्म जब उस ने मुराद इक अपनी पा ली हो गया

जज़्बा-ए-ईसार क्या क़ुव्वत अमल की फिर कहाँ

जब शुऊर इंसाँ का सर्फ़-ए-ला-उबाली हो गया

ऐ क़दामत-केश सुन ये आलम-ए-ईजाद है

नाम जिद्दत का अज़ल में ला-यज़ाली हो गया

छोड़ कर लुत्फ़-ए-सुख़न मग़्ज़-ए-सुख़न से काम लो

क्या हुआ 'कैफ़ी' जो गर्म-ए-ख़ुश-मक़ाली हो गया

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