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राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं

राहत कहाँ नसीब थी जो अब कहीं नहीं

वो आसमाँ नहीं है कि अब वो ज़मीं नहीं

हो जोश सिद्क़-ए-दिल में तो राहत बग़ल में हो

क़ाएम ये आसमान रहे या ज़मीं नहीं

हुब्ब-ए-वतन को हिम्मत-ए-मर्दाना चाहिए

दरकार आह सीना-ए-अंदोह-गीं नहीं

ख़ून-ए-दिल-ओ-जिगर से इसे सींच ऐ अज़ीज़

किश्त-ए-वतन है ये कोई किश्त-ए-जवीं नहीं

हक़-गोई की सदा थी न रुकनी न रुक सकी

कब वार की सिनानें गलों में चुभीं नहीं

दाग़-ए-ग़म-ए-वतन है निशान-ए-अज़ीज़-ए-ख़ल्क़

दिल पर न जिस का नक़्श हो ये वो नगीं नहीं

जंग-ए-वतन में सिद्क़ के हथियार का है काम

दरकार इस में असलहा-ए-आहनीं नहीं

घर-बार तेरा पर तू किसी चीज़ को न छेड़

ये बात तो हरीफ़ों की कुछ दिल-नशीं नहीं

जिस बात पर अज़ीज़ अड़े हैं अड़े रहें

कहने दें उन को ऊँचे गले से नहीं नहीं

क्या जाने दिल जिगर को मिरे जो ये कह गया

दामन भी तार तार नहीं आस्तीं नहीं

माबूद है वतन हूँ परस्तार उसी का मैं

दैर ओ हरम में जो झुके ये वो जबीं नहीं

'कैफ़ी' इसी से ख़ैरियत-ए-हिन्द में है देर

हुब्ब-ए-वतन का जोश कहीं है कहीं नहीं

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