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क़िस्मत बुरे किसी के न इस तरह लाए दिन - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

क़िस्मत बुरे किसी के न इस तरह लाए दिन

क़िस्मत बुरे किसी के न इस तरह लाए दिन

आफ़त नई है रोज़ मुसीबत है आए दिन

दिन सन ये और दिन दिए अल्लाह की पनाह

उस माह ने तो ख़ूब ही हम से गिनाए दिन

है दम-शुमारी दिन को तो अख़्तर-शुमारी शब

इस तरह तो ख़ुदा न किसी के कटाए दिन

उन की नज़र फिरी हो तो क्या अपने दिन फिरें

अब्र-ए-सियह घिरा हो तो क्या मुँह दिखाए दिन

जी जानता है क्यूँकि ये कटते हैं रोज़ ओ शब

दुश्मन को भी ख़ुदा न कभी ये दिखाए दिन

क्या लुत्फ़-ए-ज़ीस्त भरते हैं दिन ज़िंदगी के हम

'कैफ़ी' बुरे किसी के न तक़दीर लाए दिन

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