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हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा हमारी नज़र में है - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा हमारी नज़र में है

हुस्न-ए-अज़ल का जल्वा हमारी नज़र में है

जो तूर पर हुआ था दिल-ए-दीदा-वर में है

दैर ओ हरम में किस लिए आवारा-गर्दियाँ

जिस की तुझे तलाश है वो दिल के घर में है

जो देखने की आँख है तुझ को नहीं मिली

वो नूर क़द में वर्ना शजर में हजर में है

ख़ामोशियों में महफ़िल-ए-अंजुम की उस को देख

हँगामा-मस्त क्यूँ तू नुमूद-ए-सहर में है

देखा है और फिर नहीं आया नज़र तुझे

वो हुस्न वो जलाल जो शम्स ओ क़मर में है

उस को नतीजे इल्लत-ए-ग़ाई की इस को धुन

फ़र्क़ इस क़दर ही बे-ख़बर ओ बा-ख़बर में है

ढूँडा है जिस ने उस ने ही पाया सुना नहीं

लिक्खा हुआ ये हुक्म क़ज़ा-ओ-क़दर में है

हाँ हाँ ख़ुदा ख़ुदा ही है और है बशर बशर

इस उक़्दे का जो हल है वो क़ल्ब-ए-बशर में है

वो भी तो हैं नज़ारा-ए-कुल जुज़ में है जिन्हें

पोशीदा राज़-ए-दीद तो हुस्न-ए-नज़र में है

है इश्क़ जुज़्व-ए-ला-यत-जज़्ज़ा यक़ीन जान

ये क़ीमत-ए-मजाज़-ओ-हक़ीक़त ख़तर में है

क्या शौक़-ए-दीद तुझ पे तो ग़ालिब है लुत्फ़-ए-दीद

जो बात तेरे दिल में है अपनी नज़र में है

निकले न फँस के गेसू-ए-पुर-पेच-ओ-ख़म से दिल

साहिल पे ख़ाक पहुँचे जो कश्ती भँवर में है

उल्फ़त है किस की कैसी मोहब्बत कहाँ का इश्क़

मादूम तू तो फ़िक्र-ए-दहान-ओ-कमर में है

नाक़िस थी इब्तिदा तो है अंजाम-ए-इश्क़ भी

बे-रब्ती मुब्तदा में जो थी वो ख़बर में है

'कैफ़ी' मसीह-ए-शेर हैं अहबाब और भी

इक तुझ से जान-ए-ताज़ा नहीं इस ढचर में है

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