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इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे

इक ख़्वाब का ख़याल है दुनिया कहें जिसे

है इस में इक तिलिस्म तमन्ना कहें जिसे

इक शक्ल है तफ़न्नुन-ए-तबा-ए-जमाल की

इस से ज़ियादा कुछ नहीं दुनिया कहें जिसे

ख़म्याज़ा है करिश्मा-परस्ती-ए-दहर का

अहल-ए-ज़माना आलम-ए-उक़्बा कहें जिसे

इक अश्क अर्मीदा-ए-ज़ब्त-ए-ग़म-ए-फ़िराक़

मौज-ए-हवा-ए-शौक़ है दरिया कहें जिसे

बा-वस्फ़-ए-ज़ब्त-ए-राज़ मोहब्बत है आश्कार

उक़्दा है दिल का अक़्द-ए-सुरय्या कहें जिसे

बरहम-ज़न-ए-हिजाब है ख़ुद-रफ़्तगी-ए-हुस्न

इक शान-ए-बे-ख़ुदी है ज़ुलेख़ा कहें जिसे

अक्स-ए-सफ़ा-ए-क़ल्ब का जौहर है आईना

वारफ़्ता-ए-जमाल ख़ुद-आरा कहें जिसे

रम-शेवा है सनम तो है रम-आश्ना ये दिल

हासिल है मुझ को ऐश मुहय्या कहें जिसे

ख़ूनी कफ़न ये सैंत के रक्खा है किस लिए

क़ातिल वो है कि रश्क-ए-मसीहा कहें जिसे

सब कुछ है और कुछ भी नहीं दहर का वजूद

'कैफ़ी' ये बात वो है मुअम्मा कहें जिसे

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