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ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं - दत्तात्रिया कैफ़ी कविता - Darsaal

ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं

ढूँढने से यूँ तो इस दुनिया में क्या मिलता नहीं

सच अगर पूछो तो सच्चा आश्ना मिलता नहीं

आप के जो यार बनते हैं वो हैं मतलब के यार

इस ज़माने में मुहिब्ब-ए-बा-सफ़ा मिलता नहीं

सीरतों में भी है इंसानों की बाहम इख़्तिलाफ़

एक से सूरत में जैसे दूसरा मिलता नहीं

दैर ओ काबा में भटकते फिर रहे हैं रात दिन

ढूँढने से भी तो बंदों को ख़ुदा मिलता नहीं

हैं परेशाँ और हैराँ जाएँ तो जाएँ किधर

राह-गुम-गश्तों को मंज़िल का पता मिलता नहीं

बुल-हवस दिल की तरह हर रंग है सर्फ़-ए-शिकस्त

लाला ओ गुल में भी रंग-ए-देर-पा मिलता नहीं

है यहाँ तो सैर-ए-गुलज़ार-ए-ख़याल नौ-ब-नौ

हाँ असीरो हम को मज़मूँ कुछ नया मिलता नहीं

रोइए रोना ज़माने का तो 'कैफ़ी' किस के पास

कोई इस दिल के सिवा दर्द-आश्ना मिलता नहीं

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