जब से किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा
जब से किसी से दर्द का रिश्ता नहीं रहा
जीना हमारा तब से ही जीना नहीं रहा
तेरे ख़याल-ओ-ख़्वाब ही रहते हैं आस-पास
तन्हाई में भी मैं कभी तन्हा नहीं रहा
आँसू बहे हैं इतने किसी के फ़िराक़ में
आँखों में इक भी वस्ल का सपना नहीं रहा
दरपेश आ रहे हैं वो हालात आज-कल
अपनों को अपनों पर ही भरोसा नहीं रहा
नफ़रत का ज़हर फैला है लेकिन किसी में आज
मिल बैठ सोचने का भी जज़्बा नहीं रहा
दार-ओ-मदार-ए-ज़िन्दगी जिस पर था वो भी तो
जैसा समझते थे उसे वैसा नहीं रहा
ये नस्ल-ए-नौ है इतनी मोहज़्ज़ब कि इस में आज
'दरवेश' गुफ़्तुगू का सलीक़ा नहीं रहा
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