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राज़-ए-निहाँ थी ज़िंदगी राज़-ए-निहाँ है आज भी - दर्शन सिंह कविता - Darsaal

राज़-ए-निहाँ थी ज़िंदगी राज़-ए-निहाँ है आज भी

राज़-ए-निहाँ थी ज़िंदगी राज़-ए-निहाँ है आज भी

वहम-ओ-गुमाँ में थी वहम-ओ-गुमाँ है आज भी

कल भी नवा-ए-आगही क़ीमत-ए-संग-ओ-ख़िश्त थी

नग़्मा-ए-अम्न-ओ-आश्ती जिंस-ए-गिराँ है आज भी

दिल से तो रोज़-ओ-शब हुई लाख तरह की गुफ़्तुगू

तिश्ना-ए-गुफ़्तुगू मगर अपनी ज़बाँ है आज भी

ख़ाक में जज़्ब हो गया तेरे शहीद का लहू

मतला-ए-काएनात पर सुर्ख़ धुआँ है आज भी

इश्क़ को नींद आ गई वक़्त पे ओस पड़ गई

अपने जुनूँ के दश्त में धूप जवाँ है आज भी

वक़्त की दस्तरस नहीं बज़्म-ए-गह-ए-ख़याल तक

रुख़ पे ग़ुबार ही सही याद जवाँ है आज भी

कल भी रुख़-ए-हयात पर रंग-ए-शगुफ़्तगी न था

सुब्ह-ए-बहार-ए-ज़िंदगी शाम-ए-ख़िज़ाँ है आज भी

कल भी ज़बान-ओ-नुत्क़ को ख़ौफ़-ए-सिनान-ओ-सैफ था

नक़्द-ओ-नज़र को दहशत-ए-तीर-ओ-कमाँ है आज भी

'दर्शन'-ए-तिश्ना-काम पर एक निगाह साक़िया

शो'ला-बयाँ ये कल भी था शो'ला-बयाँ है आज भी

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