कब ख़मोशी को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं
कब ख़मोशी को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं
था अयाँ वो राज़-ए-दिल जिस को निहाँ समझा था मैं
सुन रहा हूँ अपनी ख़ामोशी का चर्चा कू-ब-कू
थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं
आरज़ी सा अक्स था इक इल्तिफ़ात-ए-दोस्त का
जिस को नादानी से ऐश-ए-जावेदाँ समझा था मैं
तुम ने आँखें फेर लीं मुझ से तो ये मुझ पर खुला
ख़ार-ज़ार-ए-ज़िंदगी को गुलिस्ताँ समझा था मैं
वो भी निकले बर्क़-ओ-बाद-ओ-बाग़्बाँ की मिलकियत
चार तिनके जिन को अपना आशियाँ समझा था मैं
कर सकें 'दर्शन' न वो भी अर्ज़-ए-हाल-ए-आरज़ू
जिन निगाहों को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं
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