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कब ख़मोशी को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं - दर्शन सिंह कविता - Darsaal

कब ख़मोशी को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं

कब ख़मोशी को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं

था अयाँ वो राज़-ए-दिल जिस को निहाँ समझा था मैं

सुन रहा हूँ अपनी ख़ामोशी का चर्चा कू-ब-कू

थी फ़ुग़ाँ वो भी जिसे ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ समझा था मैं

आरज़ी सा अक्स था इक इल्तिफ़ात-ए-दोस्त का

जिस को नादानी से ऐश-ए-जावेदाँ समझा था मैं

तुम ने आँखें फेर लीं मुझ से तो ये मुझ पर खुला

ख़ार-ज़ार-ए-ज़िंदगी को गुलिस्ताँ समझा था मैं

वो भी निकले बर्क़-ओ-बाद-ओ-बाग़्बाँ की मिलकियत

चार तिनके जिन को अपना आशियाँ समझा था मैं

कर सकें 'दर्शन' न वो भी अर्ज़-ए-हाल-ए-आरज़ू

जिन निगाहों को मोहब्बत की ज़बाँ समझा था मैं

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