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ज़ुहर-ए-आशिक़ी से डरता हूँ - दाऊद मोहसिन कविता - Darsaal

ज़ुहर-ए-आशिक़ी से डरता हूँ

ज़ुहर-ए-आशिक़ी से डरता हूँ

हुस्न की बरहमी से डरता हूँ

मैं ने डाली कमंद सूरज पर

फिर भी मैं रौशनी से डरता हूँ

आ बसा हूँ गली में चीख़ों की

इस लिए ख़ामुशी से डरता हूँ

मस्ख़ पहचान हो न जाए कहीं

बे-अमल ज़िंदगी से डरता हूँ

कुछ सफ़ाई में अपनी कहना है

पर तिरी मुंसिफ़ी से डरता हूँ

ख़ार को ख़ार गुल को गुल कह दूँ

मैं कहाँ कब किसी से डरता हूँ

अपनी तन्हाई ख़ूब है 'मोहसिन'

बज़्म की बे-रुख़ी से डरता हूँ

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