दरिंदे साथ रहना चाहते हैं आदमी के
घना जंगल मकानों तक पहुँचना चाहता है
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रेत मुट्ठी में भरी पानी से आग़ाज़ किया
शहर से क्या गई जानिब-ए-दश्त-ए-ज़र ज़िंदगी फ़ाख़्ता
नज़्म-गो के लिए मशवरा
ख़्वाब जज़ीरा बन सकते थे नहीं बने
पानी के शीशों में रक्खी जाती है
एक बुझाओ एक जलाओ ख़्वाब का क्या है
एक बे-चेहरा मुसाफ़िर रंग ओढ़े
आवाज़ का नौहा
कोई सिवा-ए-बदन है न है वरा-ए-बदन
ख़ामोशी की क़िर्अत करने वाले लोग
एक सब आग एक सब पानी
चश्म-ए-वा ही न हुई जल्वा-नुमा क्या होता