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उजाला ही उजाला रौशनी ही रौशनी है - दानियाल तरीर कविता - Darsaal

उजाला ही उजाला रौशनी ही रौशनी है

उजाला ही उजाला रौशनी ही रौशनी है

अँधेरे में जो तेरी आँख मुझ को देखती है

अभी जागा हुआ हूँ मैं कि थक कर सो चुका हूँ

दिए की लौ से कोई आँख मुझ को देखती है

तजस्सुस हर उफ़ुक़ पर ढूँढता रहता है उस को

कहाँ से और कैसी आँख मुझ को देखती है

अमल के वक़्त ये एहसास रहता है हमेशा

मिरे अंदर से अपनी आँख मुझ को देखती है

मैं जब भी रास्ते में अपने पीछे देखता हूँ

वही अश्कों में भीगी आँख मुझ को देखती है

कहीं से हाथ बढ़ते हैं मिरे चेहरे की जानिब

कहीं से सुर्ख़ होती आँख मुझ को देखती है

दरख़्तो मुझ को अपने सब्ज़ पत्तों में छुपा लो

फ़लक से एक जलती आँख मुझ को देखती है

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