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शहर से क्या गई जानिब-ए-दश्त-ए-ज़र ज़िंदगी फ़ाख़्ता - दानियाल तरीर कविता - Darsaal

शहर से क्या गई जानिब-ए-दश्त-ए-ज़र ज़िंदगी फ़ाख़्ता

शहर से क्या गई जानिब-ए-दश्त-ए-ज़र ज़िंदगी फ़ाख़्ता

बैन करने लगी आ के शाम-ओ-सहर मातमी फ़ाख़्ता

मर गया रात को बर्फ़ ओढ़े हुए एक फ़ुटपाथ पर

वो जो कहता रहा लफ़्ज़ वो उम्र-भर शांति फ़ाख़्ता

कैसी कैसी हवाएँ चलीं बाग़ में कौन आया गया

सारी तब्दीलियों से रही बे-ख़बर बावरी फ़ाख़्ता

वो नगर चाँद का है वहाँ तेरी किरनों की ख़्वाहिश किसे

इस तरफ़ तीरगी है यहाँ ला के धर तश्तरी फ़ाख़्ता

बे-अमाँ शहर में कैसी दहशत से गुज़री थी मैं क्या कहूँ

जब अदू देखती अपने ही बाल-ओ-पर नोचती फ़ाख़्ता

वो जो आँखों में थी कोई दुनिया अलग थी जहाँ से जुदा

मेरे ख़्वाबों में थे अम्न का राहबर रौशनी फ़ाख़्ता

मैं था शाइ'र मुझे शहर-आशोब लिखने थे लिखता रहा

तेरी क़िस्मत में लिखे गए क्यूँ खंडर सुंदरी फ़ाख़्ता

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