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ब-तर्ज़-ए-ख़्वाब सजानी पड़ी है आख़िर-कार - दानियाल तरीर कविता - Darsaal

ब-तर्ज़-ए-ख़्वाब सजानी पड़ी है आख़िर-कार

ब-तर्ज़-ए-ख़्वाब सजानी पड़ी है आख़िर-कार

नई ज़मीन बनानी पड़ी है आख़िर-कार

तपिश ने जिस की मुझे कीमिया बनाना था

मुझे वो आग बुझानी पड़ी है आख़िर-कार

बहुत दिनों से ये मिट्टी पड़ी थी एक जगह

हर एक सम्त उड़ानी पड़ी है आख़िर-कार

जहाँ पे क़स्र बनाए गए थे काग़ज़ के

वहाँ से राख उठानी पड़ी है आख़िर-कार

वो पाँव भीगे हुए देखने की ख़्वाहिश में

चमन में ओस बिछानी पड़ी है आख़िर-कार

मिरे बदन की ज़िया बढ़ गई थी सूरज से

लहू में रात मिलानी पड़ी है आख़िर-कार

ज़मीं पे दाग़ बहुत पड़ गए थे ख़ून के दाग़

फ़लक को बर्फ़ गिरानी पड़ी है आख़िर-कार

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