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अजब रंग-ए-तिलस्म-ओ-तर्ज़-ए-नौ है - दानियाल तरीर कविता - Darsaal

अजब रंग-ए-तिलस्म-ओ-तर्ज़-ए-नौ है

अजब रंग-ए-तिलस्म-ओ-तर्ज़-ए-नौ है

दिया है आग का मिट्टी की लौ है

मुझे सुन लेंगी तो देखेंगी आँखें

मिरी आवाज़ में सूरज की ज़ौ है

रिकाब और बाग क़ाबू में नहीं हैं

ये अस्प-ए-वक़्त कितना तेज़-रौ है

मिरी तारीफ़ के हैं दो हवाले

क़दम अफ़्लाक पर मुट्ठी में जौ है

नहीं है हुर्रियत की कोई क़ीमत

मगर पिंजरे की क़ीमत चार सौ है

मैं क्या हरियालियों की आस बाँधूँ

ज़मीं के साथ सपना भी गिरो है

'तरीर' आँसू हैं और धुंदलाहटें हैं

ये कैसी कहकशाओं की जिलौ है

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