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न सोचें अहल-ए-ख़िरद मुझ को आज़माने को - दानिश फ़राही कविता - Darsaal

न सोचें अहल-ए-ख़िरद मुझ को आज़माने को

न सोचें अहल-ए-ख़िरद मुझ को आज़माने को

मैं जानता हूँ बहुत अक़्ल के फ़साने को

नहीं क़फ़स से निकलने की आरज़ू सय्याद

दिखा दे एक नज़र मेरे आशियाने को

असीर कर के क़फ़स में मुझे ये हैरत है

वो कह रहे हैं मुझी से चमन बचाने को

सुलूक अहल-ए-चमन से ये बाग़बाँ ने किया

क़फ़स समझने लगे हैं सब आशियाने को

बताओ तुम को ये क्या हो गया है अहल-ए-चमन

जला रहे हो जो ख़ुद अपने आशियाने को

जफ़ा-ओ-ज़ुल्म के इस तुंद तेज़ तूफ़ाँ में

वो मुझ से कहते हैं शम-ए-वफ़ा जलाने को

गिरा रहे हैं मुसलसल वो बिजलियाँ 'दानिश'

बताओ कैसे बचाओगे आशियाने को

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