हश्र इक गुज़रा है वीराने पे घर होने तक
हश्र इक गुज़रा है वीराने पे घर होने तक
जाने क्या बीती है दाने पे शजर होने तक
हिज्र की शब ये मिरे सोज़-ए-दरूँ का आलम
जल के मैं ख़ाक न हो जाऊँ सहर होने तक
अहल-ए-दिल रहते हैं ता-ज़ीस्त वफ़ा के पाबंद
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
बे-क़रारी का ये आलम है सर-ए-शाम ही जब
देखें क्या होता है इस दिल का सहर होने तक
देखेंगे हश्र जफ़ाओं का हम उन की 'दानिश'
रह गए ज़िंदा जो आहों के असर होने तक
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