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रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी

रंज की जब गुफ़्तुगू होने लगी

आप से तुम तुम से तू होने लगी

चाहिए पैग़ाम-बर दोनों तरफ़

लुत्फ़ क्या जब दू-ब-दू होने लगी

मेरी रुस्वाई की नौबत आ गई

उन की शोहरत कू-ब-कू होने लगी

है तिरी तस्वीर कितनी बे-हिजाब

हर किसी के रू-ब-रू होने लगी

ग़ैर के होते भला ऐ शाम-ए-वस्ल

क्यूँ हमारे रू-ब-रू होने लगी

ना-उम्मीदी बढ़ गई है इस क़दर

आरज़ू की आरज़ू होने लगी

अब के मिल कर देखिए क्या रंग हो

फिर हमारी जुस्तुजू होने लगी

'दाग़' इतराए हुए फिरते हैं आज

शायद उन की आबरू होने लगी

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