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क़रीने से अजब आरास्ता क़ातिल की महफ़िल है - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

क़रीने से अजब आरास्ता क़ातिल की महफ़िल है

क़रीने से अजब आरास्ता क़ातिल की महफ़िल है

जहाँ सर चाहिए सर है जहाँ दिल चाहिए दिल है

हर इक के वास्ते कब इश्क़ की दुश्वार मंज़िल है

जिसे आसाँ है आसाँ है जिसे मुश्किल है मुश्किल है

ज़हे तक़दीर किस आराम ओ राहत से वो बिस्मिल है

कि जिस के सर का तकिया देर से ज़ानू-ए-क़ातिल है

तरीक़-ए-इश्क़ कुछ आसान है कुछ हम को मुश्किल है

इधर रहबर उधर रहज़न यही मंज़िल-ब-मंज़िल है

मुझे तुझ से रुकावट और तू ग़ैरों पे माइल है

मिरा दिल अब तिरा दिल है तिरा दिल अब मिरा दिल है

बढ़ा दिल इस क़दर फ़र्त-ए-ख़ुशी से वस्ल की शब को

मुझे ये वहम था पहलू में ये तकिया है या दिल है

तिरी तलवार के क़ुर्बान ऐ सफ़्फ़ाक क्या कहना

इधर कुश्ते पे कुश्ता है उधर बिस्मिल पे बिस्मिल है

अदम में ले चला है रहनुमा-ए-इश्क़ क्या मुझ को

यही कहता है आ पहुँचे हैं थोड़ी दूर मंज़िल है

उन्हें जब मेहरबाँ पा कर सवाल-ए-वस्ल कर बैठा

दबी आवाज़ से शरमा के वो बोले ये मुश्किल है

सितम भी हो तो मुझ पर हो जफ़ा भी हो तो मुझ पर हो

मुझे इस रश्क ने मारा वो क्यूँ आलम का क़ातिल है

मसीहा ने तिरे बीमार को देखा तो फ़रमाया

न ये जीने के क़ाबिल है न ये मरने के क़ाबिल है

ज़बर्दस्ती तो देखो हाथ रख कर मेरे सीने पर

वो किस दावे से कहते हैं हमारा ही तो ये दिल है

हमारे दिल में आ कर सैर देखो ख़ूब-रूयों की

कि इन्द्र का अखाड़ा है परी-ज़ादों की महफ़िल है

मदारिज-ए-इश्क़ के तय हो सकें ये हो नहीं सकता

ज़मीं से अर्श तक ऐ बे-ख़बर मंज़िल-ब-मंज़िल है

झिड़कते हो मुझे क्यूँ दूर ही से पास आने दो

बढ़ा कर हाथ दिल देता हूँ तुम समझे हो साइल है

सुना भी तू ने ऐ दिल क्या सदा आती है महशर में

यही दिन इम्तिहाँ का है हमारे कौन शामिल है

उड़ाते हैं मज़े दुनिया के हम ऐ 'दाग़' घर बैठे

दकन में अब तो अफ़ज़लगंज अपनी ऐश मंज़िल है

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