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मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया

मिन्नतों से भी न वो हूर-शमाइल आया

किस जगह आँख लड़ी हाए कहाँ दिल आया

हम न कहते थे न कर इश्क़ पशीमाँ होगा

जो किया तू ने वो आगे तिरे ऐ दिल आया

क़हक़हे क़ुलक़ुल-ए-मीना ने लगाए क्या क्या

मुझ को मस्ती में जो रोना सर-ए-महफ़िल आया

क़त्ल की सुन के ख़बर ईद मनाई मैं ने

आज जिस से मुझे मिलना था गले मिल आया

ता दम-ए-मर्ग न हो वो मिरे दुश्मन को नसीब

जो मज़ा मुझ को इलाही दम-ए-बिस्मिल आया

मरक़द-ए-क़ैस पर अब तक भी तो ख़ार-ए-सहरा

उँगलियों से ये बताते हैं वो महमिल आया

गंज-ए-क़ारूँ के सिवा भी है अदम में सब कुछ

हाए दुनिया में न इस मुल्क का हासिल आया

जिस ने कुछ होश सँभाला वो जवाँ क़त्ल हुआ

अहद-ए-पीरी न तिरे अहद में क़ातिल आया

दीन ओ दुनिया से गया तो ये समझ ले ऐ 'दाग़'

ग़ज़ब आया अगर उस बुत पे तिरा दिल आया

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