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क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है

क्या तर्ज़-ए-कलाम हो गई है

हर बात पयाम हो गई है

कुछ ज़हर न थी शराब-ए-अंगूर

क्या चीज़ हराम हो गई है

आगे तो नहीं नहीं सुनी थी

अब तकिया-कलाम हो गई है

जाते जाते पयाम-बर को

हर सुब्ह से शाम हो गई है

अब देखिए मश्क़-ए-पाएमाली

तारीफ़-ए-ख़िराम हो गई है

पहुँचे हैं जब उस की बज़्म में हम

मज्लिस ही तमाम हो गई है

आलम को है दावा-ए-मोहब्बत

ये ख़ास भी आम हो गई है

उस बुत के हमीं नहीं हैं बंदे

मख़्लूक़ ग़ुलाम हो गई है

बर्बाद न होगी तेरी उल्फ़त

तज्वीज़ मक़ाम हो गई है

जागीर जुनूँ की क़ैस के बाद

अब 'दाग़' के नाम हो गई है

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