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ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया

ग़ैर को मुँह लगा के देख लिया

झूट सच आज़मा के देख लिया

उन के घर 'दाग़' जा के देख लिया

दिल के कहने में आ के देख लिया

कितनी फ़रहत-फ़ज़ा थी बू-ए-वफ़ा

उस ने दिल को जला के देख लिया

कभी ग़श में रहा शब-ए-व'अदा

कभी गर्दन उठा के देख लिया

जिंस-ए-दिल है ये वो नहीं सौदा

हर जगह से मँगा के देख लिया

लोग कहते हैं चुप लगी है तुझे

हाल-ए-दिल भी सुना के देख लिया

जाओ भी क्या करोगे मेहर-ओ-वफ़ा

बार-हा आज़मा के देख लिया

ज़ख़्म-ए-दिल में नहीं है क़तरा-ए-ख़ूँ

ख़ूब हम ने दिखा के देख लिया

इधर आईना है उधर दिल है

जिस को चाहा उठा के देख लिया

उन को ख़ल्वत-सरा में बे-पर्दा

साफ़ मैदान पा के देख लिया

उस ने सुब्ह-ए-शब-ए-विसाल मुझे

जाते जाते भी आ के देख लिया

तुम को है वस्ल-ए-ग़ैर से इंकार

और जो हम ने आ के देख लिया

'दाग़' ने ख़ूब आशिक़ी का मज़ा

जल के देखा जला के देख लिया

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