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डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम

डरते हैं चश्म ओ ज़ुल्फ़ ओ निगाह ओ अदा से हम

हर दम पनाह माँगते हैं हर बला से हम

माशूक़ जा-ए-हूर मिले मय बजाए आब

महशर में दो सवाल करेंगे ख़ुदा से हम

गर तू किसी बहाने आ जाए वक़्त-ए-नज़अ

ज़ालिम करें हज़ार बहाने क़ज़ा से हम

गो हाल-ए-दिल छुपाते हैं पर इस को क्या करें

आते हैं ख़ुद-ब-ख़ुद नज़र इक मुब्तिला से हम

नाचार इख़्तियार किया शेवा-ए-रक़ीब

कुछ बे-हयाई ख़ूब हैं गुज़रे हया से हम

माँगी न होगी ख़िज़्र ने यूँ उम्र-ए-जावेदाँ

क्या अपनी मौत माँगते हैं इल्तिजा से हम

देखें तो पहले कौन मिटे उस की राह में

बैठे हैं शर्त बाँध के हर नक़्श-ए-पा से हम

मजबूर अपनी शेवा-ए-शर्म-ओ-हया से तुम

नाचार इज़्तिराब-ए-दिल-ए-मुब्तला से हम

ये आरज़ू है आँख में सुर्मा लगाएँगे

ऐ 'दाग़' ख़ाक-ए-पा-ए-रसूल-ए-ख़ुदा से हम

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