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भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं

भवें तनती हैं ख़ंजर हाथ में है तन के बैठे हैं

किसी से आज बिगड़ी है कि वो यूँ बन के बैठे हैं

दिलों पर सैकड़ों सिक्के तिरे जोबन के बैठे हैं

कलेजों पर हज़ारों तीर उस चितवन के बैठे हैं

इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है

हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं

ये गुस्ताख़ी ये छेड़ अच्छी नहीं है ऐ दिल-ए-नादाँ

अभी फिर रूठ जाएँगे अभी तो मन के बैठे हैं

असर है जज़्ब-ए-उल्फ़त में तो खिंच कर आ ही जाएँगे

हमें पर्वा नहीं हम से अगर वो तन के बैठे हैं

सुबुक हो जाएँगे गर जाएँगे वो बज़्म-ए-दुश्मन में

कि जब तक घर में बैठे हैं वो लाखों मन के बैठे हैं

फ़ुसूँ है या दुआ है या मुअ'म्मा खुल नहीं सकता

वो कुछ पढ़ते हुए आगे मिरे मदफ़न के बैठे हैं

बहुत रोया हूँ मैं जब से ये मैं ने ख़्वाब देखा है

कि आप आँसू बहाते सामने दुश्मन के बैठे हैं

खड़े हों ज़ेर-ए-तूबा वो न दम लेने को दम भर भी

जो हसरत-मंद तेरे साया-ए-दामन के बैठे हैं

तलाश-ए-मंज़िल-ए-मक़्सद की गर्दिश उठ नहीं सकती

कमर खोले हुए रस्ते में हम रहज़न के बैठे हैं

ये जोश-ए-गिर्या तो देखो कि जब फ़ुर्क़त में रोया हूँ

दर ओ दीवार इक पल में मिरे मदफ़न के बैठे हैं

निगाह-ए-शोख़ ओ चश्म-ए-शौक़ में दर-पर्दा छनती है

कि वो चिलमन में हैं नज़दीक हम चिलमन के बैठे हैं

ये उठना बैठना महफ़िल में उन का रंग लाएगा

क़यामत बन के उट्ठेंगे भबूका बन के बैठे हैं

किसी की शामत आएगी किसी की जान जाएगी

किसी की ताक में वो बाम पर बन-ठन के बैठे हैं

क़सम दे कर उन्हें ये पूछ लो तुम रंग-ढंग उस के

तुम्हारी बज़्म में कुछ दोस्त भी दुश्मन के बैठे हैं

कोई छींटा पड़े तो 'दाग़' कलकत्ते चले जाएँ

अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं

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