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भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले - दाग़ देहलवी कविता - Darsaal

भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले

भला हो पीर-ए-मुग़ाँ का इधर निगाह मिले

फ़क़ीर हैं कोई चुल्लू ख़ुदा की राह मिले

कहाँ थे रात को हम से ज़रा निगाह मिले

तलाश में हो कि झूटा कोई गवाह मिले

क़रीब-ए-मय-कदा मुझ को जो ख़ानक़ाह मिले

गले सवाब के क्या क्या मिरे गुनाह मिले

वो रोज़-ए-हश्र है दुनिया नहीं कि राह मिले

कहाँ छुपोगे जो दो चार दाद-ख़्वाह मिले

मिरी ख़राबी में आ कर वो चौकड़ी भूले

कि फिर न ख़ाना-ख़राबी को घर की राह मिले

तिरा दिल आए किसी पर तो अर्श हिल जाए

असर तलाश में है इस तरह की आह मिले

तुम्हारे कूचे में हर रोज़ वो क़यामत है

कि साया ढूँड रहा है कहीं पनाह मिले

तिरा ग़ुरूर समाया है इस क़दर दिल में

निगाह भी न मिलाऊँ जो बादशाह मिले

सर-बरहना मजनूँ पे आशियाँ है ताज

न रक्खे सर पे जो फ़ग़्फ़ूर की कुलाह मिले

फ़लक की तरह जफ़ाएँ न कीजिए हर रोज़

इसी क़दर है ये ने'मत जो गाह गाह मिले

तुम्हारे हुस्न से क्या रुत्बा माह-ए-कनआँ को

वही तो चाँद जिसे डूबने को चाह मिले

सब अहल-ए-हश्र जब अपने किए को पाएँगे

बड़ा मज़ा हो जो मुझ को मिरा गुनाह मिले

करूँ मैं अर्ज़ अगर जान की अमाँ पाऊँ

कहूँ पते की अगर क़हर से पनाह मिले

ये है मज़े की लड़ाई ये है मज़े का मिलाप

कि तुझ से आँख लड़ी और फिर निगाह मिले

हुआ है दर्द-ए-जिगर से ये घर मिरा तारीक

कि मौत ढूँडती फिरती है कोई राह मिले

न उस को सब्र न तासीर का पता या रब

जला दिया है मुझे ख़ाक में ये आह मिले

बला से दावा-ए-उल्फ़त न पेश करते हम

मिले हुए हैं जो दुश्मन से वो गवाह मिले

ठहर न आह मिरी जान ले के चलते हो

सफ़र करे जो मुसाफ़िर को ज़ाद-ए-राह मिले

मसल सुनी है कि मिलने से कोई मिलता है

मिलो तो आँख मिले दिल मिले निगाह मिले

क़मर को जामा-ए-शब तो बसर को पर्दा-ए-चश्म

कई लिबास तिरे नूर को सियाह मिले

असर कहाँ से मिले जब ये फूट हो बाहम

अलग अलग रहे दोनों न हर्फ़-ए-आह मिले

लगा के पाँव में उस के उड़ाऊँ क़ासिद को

अगर मुझे तिरे तौसन की गर्द-ए-राह मिले

इस इंक़लाब में ढूँडो जो मुश्क और काफ़ूर

तो ये सफ़ेद मिले और वो सियाह मिले

नवेद-ए-बख़्शिश-ए-इस्याँ उसे सुना देना

जो शर्मसार कहीं 'दाग़'-ए-रू-सियाह मिले

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