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बाब-ए-रहमत पे दुआ गिर्या-कुनाँ हो जैसे - दाएम ग़व्वासी कविता - Darsaal

बाब-ए-रहमत पे दुआ गिर्या-कुनाँ हो जैसे

बाब-ए-रहमत पे दुआ गिर्या-कुनाँ हो जैसे

गुम-शुदा बेटे की मुज़्तर कोई माँ हो जैसे

उस की मुम्ताज़ की रूदाद-ए-मोहब्बत लिख दूँ

ऐसे कहता है कोई शाह-जहाँ हो जैसे

गुफ़्तुगू में वो हलावत वो अमल में इख़्लास

उस की हस्ती पे फ़रिश्ते का गुमाँ हो जैसे

उस की दुज़दीदा-निगाही के हैं सब ही घायल

कोई सय्याद लिए तीर-ओ-कमाँ हो जैसे

मुझ को उर्दू-ए-मुअ'ल्ला नहीं आती अब तक

तुझ को ये ज़ोम तिरे घर की ज़बाँ हो जैसे

हम को रखती है निशाने पे सियासत उन की

घर जलाने पे ब-ज़िद बर्क़-ए-तपाँ हो जैसे

उस के आते ही सनम-ख़ानों के बुत बोल उठे

मुश्रिकों में कोई एजाज़-ए-बयाँ हो जैसे

यूँ तिरी ज़ुल्फ़ की ख़ुशबू है सर-ए-शाम उड़ी

कश्ती-ए-फ़िक्र यम-ए-फ़न में रवाँ हो जैसे

तेरे अशआ'र उतर आते हैं 'दाएम' दिल में

हक़-परस्तों के लिए सौत-ए-अज़ाँ हो जैसे

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