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नज़रों के गिर्द यूँ तो कोई दायरा न था - डी. राज कँवल कविता - Darsaal

नज़रों के गिर्द यूँ तो कोई दायरा न था

नज़रों के गिर्द यूँ तो कोई दायरा न था

अपने सिवाए कुछ भी मगर सूझता न था

सब खिड़कियाँ थीं बंद कोई दर खुला न था

जाते कहाँ कि ख़ुद से परे रास्ता न था

क्या जाने किस ख़याल से चुप हो के रह गया

ऐसा नहीं कि ग़म मुझे पहचानता न था

होंटों के पास आ न सका जाम उम्र-भर

हालाँकि फ़ासला ये कोई फ़ासला न था

वो जिस ने ज़िंदगी का मिरी रुख़ बदल दिया

वो आप थे हुज़ूर कोई दूसरा न था

पूछी किसी ने राह तो चुप हो के रह गए

कहते भी क्या कि ख़ुद हमें अपना पता न था

अब के कुछ इस तरह से भी आई 'कँवल' बहार

सारे चमन में एक भी पत्ता हरा न था

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