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किसी ने बा-वफ़ा समझा किसी ने बेवफ़ा समझा - डी. राज कँवल कविता - Darsaal

किसी ने बा-वफ़ा समझा किसी ने बेवफ़ा समझा

किसी ने बा-वफ़ा समझा किसी ने बेवफ़ा समझा

मुझे ग़ैरों ने क्या समझा मुझे अपनों ने क्या समझा

ग़म-ए-पैहम हुई साबित जिसे मैं ने बक़ा समझा

हयात-ए-जाविदाँ निकली जिसे मैं ने क़ज़ा समझा

ग़लत समझा ज़माने में तुझे दर्द-आश्ना समझा

मिरी नज़रों का धोका था मैं पत्थर को ख़ुदा समझा

वफ़ा की राह में खाए हैं ऐसे भी कभी धोके

वो ज़ालिम इब्तिदा निकली जिसे मैं इंतिहा समझा

उसे दिल का जुनूँ कहिए कि मेरी सादगी कहिए

मैं हर इक रहगुज़र को आज उस का नक़्श-ए-पा समझा

बहुत मुमकिन था मौजों से मिरी कश्ती निकल आती

मगर वो राहज़न निकला जिसे मैं नाख़ुदा समझा

रह-ए-उल्फ़त में ऐसे भी 'कँवल' अक्सर मक़ाम आए

जहाँ हर दिल की धड़कन को मैं अपनी ही सदा समझा

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